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ब्रह्मर्षि अंगिरा पंचमी व्रतकथा
प्रथम अध्याय
एक समय जांगल देश, जिसमें बड़े-बड़े यज्ञों के कर्ता धर्मात्मा, महाराज अजमीढ़ के पुत्र सम्वरण एवं उनके पुत्र महाराज कुरू जैसे महान वीर-ज्ञानी प्रजापालक राजा राज्य करते थे। इस जांगल देश में महान प्रतापी राजा कुरू हुये। उनके नाम से इस जांगल देश को जोड़कर 'कुरू जांगल' नाम पड़ा। इन्हीं महाराज कुरू ने 20 योजन विस्तार वाले 'कुरुक्षेत्र' को भी बसाया। यह क्षेत्र प्राकृतिक सौन्दर्य की प्रचुरता से जप-तप, यज्ञादि के लिये पूर्णरूप से उपयुक्त था। भगवान वेदव्यास जी ने इसके विषय में लिखा है यथा 'नदीशु गंगा जलेषु पद्मं यद्वत प्रवरं पृथुदकमः।। इसी पुण्यमयी कुरू जांगल देश में ऋषियों ने एकत्रित होकर श्रीकृष्ण दैपायन वेदव्यासजी से कलियुग में जीवों के कल्याण हेतु पूछा कि हे व्यासजी महाराज! हम लोगों के लिए ऐसा कोई सरल उपाय बतलायें जिससे इस कलियुग जीवी सृष्टि का कल्याण हो सके। आपका जन्म(अवतार) मानव जीवन के कल्याणार्थ ही इस भूतल पर हुआ है। ऐसा सुनकर भी वेदव्यास जी एक क्षण के लिये मौन होकर आनन्दमग्न हो कहने लगे- हे ऋषि प्रवरों! आज आपने बहुत अच्छा प्रश्न किया है, इस विषय में आप लोग ध्यानपूर्वक सुने। जगत् पिता परमात्मा और कुरू जांगलदेश की पवित्र तपोभूमि के अद्भुत प्रभाव से जीवों का कल्याण होता है, वह ऋषिव्रत आपको सुनाता हूं।
कलियुग में अल्पायु, लोभ, मोह से ग्रसित सुविधाभोगी, असक्त मनुष्यों के लिये भाद्रपद शुक्ला अंगिराजी का व्रत (उपवास) करके पूजन, अर्चन करना चाहिए। अंगिरा व्रत, महान तप के बराबर फल देने वाला है। यह इस लोक में स्वस्थ मानसिकता देता है। इससे जीव सुखी जीवन व्यतीत करता हुआ परलोक के लिये अक्षण्य पुण्य फल अर्जित कर सकता है। ऋषि अंगिराजी के इस व्रत महोत्सव के लिये अपने पड़ोसी, स्वजन परिवार के साथ सामूहिक आयोजन करना चाहिए। ऐसा करने से वर्तमान और भविष्य को आने वाली संतति में ऋषितुल्य संस्कारों का प्रवेश कर ज्ञान का अभ्युदय होगा, परोपकारी भावनायें जागृत होंगी। ज्ञानवर्धन से अशान्ति दूर होगी 'अशान्तस्य कुतः सुखम्' अर्थात शान्ति हो जाने पर मनुष्य का स्वयं ही जीवन सुखी हो जाता है।
महर्षि अंगिरा जी के व्रत करने वाले व्यक्ति स्वयं धर्म से जुड़ जायेंगे तथा धर्मों विश्वस्य जगतः प्रतिष्ठा' धर्म ही संसार का मूल है और धर्म से ही जगत में प्रतिष्ठा है। यही सुख का मूल है। अपने लिये सुख, शांति चाहने वालों के लिये कमी भी दूसरों का बुरा नही सोचना चाहिये। "आत्मनः प्रतिकूललानि परेषां न समाचरेत" अपनी आत्मा को जो बुरा लगे ऐसा व्यवहार दूसरों के साथ कदापि नहीं करना चाहिए।
द्वितीय अध्याय
ऋषिगण श्री अंगिरा जी के व्रत की इस प्रकार महिमा सुनकर व्यासजी से बोले- हे महाराज! यह व्रत किस विधान से करना चाहिये, कृपा कर यह सब बतलावैं। ऐसा सुन भगवान वेदव्यास जी बोले, हे ऋषियों! ऋषि पंचमी के दिन प्रातः सूर्योदय से पूर्व शैय्या त्यागकर निवृत होकर नदी, सरोवर कुआं अथवा घर पर ही स्नान कर रेशमी अथवा शुद्ध धुले हुये वस्त्र आदि पहनकर एकान्त नदी तीरे देव मन्दिरे या शुद्ध पवित्र स्थान पर प्रसन्नता और उत्साह के साथ कुशासन पर बैठकर ऋषि अंगिराजी का चित्र और कुशा की मूर्ति बनावें।
विधिः कुशा की डाभ को लेकर दोहरी करके एक गांठ लगा लें इसके पश्चात उस मूर्ति को किसी पात्र में विराजमान कर क्रमशः दूध, दही, घृत, शहद, शर्करा से स्नान करावें फिर शुद्ध जल से स्नान कराकर पट्टे या सिंहासन पर पीला वस्त्र बिछाकर उस पर विराजमान करें। उसी पट्टे या सिंहासन पर श्री अंगिरा जी के चित्र को विराजमान कर देवे। तत्पश्चात् शुद्ध वस्त्र, जनेऊ, चन्दन, इत्र, धूप, दीप, पुष्पमाला इत्यादि अर्पण कर पूजन करे। नैवेध, मिष्ठान तथा पांच ऋतु फल भोग में रखें फिर सभी बन्धु-बान्धवों के साथ नम्र होकर ऋषि अंगिरा जी को हाथ जोड़कर स्तुति करें।
"सुखैश्वर्य प्रदाता चः दरिद्रय नाशक ।
ममेष्ट सफलां वाप्तिः अंगिरायै नमो नमः ।।
अंगिरा महर्षि प्रभु उर में विराजो आन।
शुद्धि बुद्धि दे के अग्यान तम हटाय देउ।।
ऐसी अब युक्ति देऊ, दुगुर्ण सो मुक्ति देऊ ।
हृदै बीच भक्ति देऊ, कष्ट कू मिटाय देऊ।।
रिद्धि सिद्धि दायक हो, विद्या के विनायक हो।।
सब के सहायक हो, कंचन लटाय देऊ।।
उद्यम उत्थान करै सब को सम्मान करे।
'ओम्' नाम ध्यान करे सेवा में जुटाय देऊ ।।
इस प्रकार श्री अंगिरा जी की स्तुति करके कथा श्रवण करें। ऐसा सुनकर ऋषियों ने विनती की कि हे वेदव्यास जी महाराज! आपके हृदय में अहर्निश प्रभु का वास रहने से चिंतन बना ही रहता है। अब आप ब्रह्मर्षि अंगिरा जी की कथा हमें सुनावे। ऐसी ऋषियों की प्रार्थना सुनकर भगवान व्यास जी बोले, हे ऋषि प्रवरों! आप लोग एकाग्रचित्त हो कथा श्रवण करें।
एक समय महाराज युधिष्ठर के पूछने पर महर्षि मार्कण्डेय जी ने उन्हें जो बतलाया था, वह कथा कहता हूं। मार्कण्डेय जी बोले, हे महाराज युधिष्ठर! सृष्टि के आदि में ब्रह्मा जी के मानसपुत्र महान तेजस्वी श्री अंगिराजी अपने आश्रम में ध्यान मग्न होकर तपस्या में आत्मानन्द प्राप्त कर इतने लीन हो गये कि उन्हें समय का भान नहीं न रहा। इस कारण उनके तेज के आगे अग्निदेव भी निश्तेज जैसे होने लगे तथा सन्तृप्त भी होने लगे। इस प्रकार उनके तेज से विचलित हो अग्निदेव जल में प्रवेश कर गये तथा मन में विचार करने लगे कि क्या ब्रह्मा जी ने लोगों को प्रकाश देने के लिये किसी दूसरी अग्नि को उन्पन्न कर दिया है, जिससे मेरा अग्नित्व तेज समाप्त हो गया है। अब मैं अपने स्वरूप, यश, कीर्ति के साथ तेज को पुनः कैसे प्राप्त करू? इस प्रकार का विचार करते हुए उनको ज्ञात हुआ कि महर्षि अंगिरा जी की तपस्या के तेज से यानी तेजाग्नि से सारा भूमण्डल व्याकुल हो रहा है। ऐसा सोचकर वह श्री अंगिरा जी के आश्रम पर गये और नतमस्तक हो हाथ जोड़कर सम्मुख खड़े हो गये तथा मन ही मन प्रार्थना करने लगे कि हे अंगिरा जी! ब्रह्मा जी द्वारा रची समस्त सृष्टि आपकी इस तेजाग्नि से व्याकुल हो रही है। उसकी रक्षा कीजिये।
तभी श्री अंगिरा जी के ध्यान में आया कि साक्षात् अग्नि देव मेरे आश्रम पर विनीत भाव से खड़े है। जब श्री अंगिराजी के नेत्र खुले तो उन्होंने सम्मुख ही अग्निदेव के दर्शन किये तथा उठकर अर्ध्य आसनादि से स्वागत किया। तत्पश्चात आने का प्रयोजन पूछा जिसे सुनकर अग्निदेव ने कहा कि श्री अंगिरा जी! आपकी तपस्या की तेजाग्नि से सारा मंडल संतप्त हो रहा है साथ ही मेरा आग्नित्व नष्ट प्रायः हो गया है। मैं अपना स्थान खो चुका हूँ। लोक में मेरी कीर्ति नष्ट हो रही है। इस प्रकार सुनकर श्री अंगिरा जी बोले कि हे अग्निदेव! आप दुःखी न हो! आप स्थावर-जंगम् रूप से तीनों लोको में पुनः प्रतिष्ठित होगें तथा आप अपने पूर्व स्वरूप को प्राप्त कर जगत् के अंधकार को मिटा सकोगे एवं यज्ञाग्नि द्वारा प्रजा के सुख के लिए दिव्य औषधियां, वनस्पतियों, सुगन्धित सामग्रियों को हविष्यात्र के रूप में ग्रहण करो जिससे विश्व का वायुमण्डल शुद्ध हो तथा शुद्ध जल की वर्षा से पृथ्वी पर शुद्ध खाद्यान्न की उत्पत्ति हो जिससे प्रजा का पालन हो और वह स्वस्थ बने। हे अग्निदेव यह मेरा आशीर्वाद है। इस प्रकार महर्षि अंगिरा जी की महानता से अग्निदेव बड़े प्रभावित हुये और कहने लगे कि हे महर्षि! आप प्रथमाग्नि हो, मैं द्वितीय प्रजापत्य नामक अग्नि होकर रहूंगा। आप मुझे अपना पुत्र स्वीकार करें। मेरी यही प्रार्थना है, ऐसा सुनकर महर्षि अंगिराजी ने तथास्तु कहा। इस प्रकार आग्रह स्वीकार कर अंगिरा जी तथा अग्निदेव दोनों ही प्रसन्न हुये। तत्पश्चात् अग्निदेव अंगिराजी की शुमा नाम की पत्नी के गर्भ से पुत्र रूप में आचार्य बृहस्पतिजी के रूप में उत्पन्न हुये जो समस्त देवताओं के गुरू बने।
एक बार अंगिरा पुत्र बृहस्पति जी के पास जाकर समस्त देवगणों ने जीव जगत तथा ब्रह्मा के बारे में अनेकों गूढ़ शंकायें की। बृहस्पति जी ने सहज ही में उनका समाधान कर दिया। ऐसी अनुपम प्रतिमा देखाकर सभी देवताओं ने उन्हें अपने गुरू पर स्वीकार हेतु प्रार्थना की, जिसे पिता अंगिरा जी की आज्ञा मानकर बृहस्पति जी ने गुरू पद स्वीकार कर लिया, तब से ये देवगुरू कहलाने लगे।
तृतीय अध्याय
इस प्रकार वेद व्यास जी के मुख से श्री अंगिरा जी की महिमा सुनकर ऋषियों ने कहा कि हे व्यास जी महाराज! हमने आपके मुख से जो कथा सुनी उससे हम तथा जांगल देश के सभी ब्राह्मण अति आनंदित हुये। लेकिन हृदय में अभी और ऐसी परम पवित्र कथायें सुनने की इच्छा हो रही है। अतः कृपा करके आगे कुछ और वृतान्त सुना कर हृदयों की तृप्ति करे। ऐसा सुनकर श्री वेदव्यास जी महाराज बोले कि हे ब्राह्मण ऋषियों! प्रभु की लीला बड़ी विलक्षण है। संसार में जो कुछ भी हुआ है, हो रहा है या जो भी आगे होगा। वह सब ईश्वर इच्छा पर आधारित समझे। उन्हीं की जब पूर्ण अनुकम्पा होती है तभी ऐसा सत्संगों का प्राणी को सुअवसर प्राप्त होता है। जीव के जीवन का जो समय सत्संगों में व्यतीत होता है वही धन्य है। वही सार्थक है, परन्तु सत्संग और परमार्थ करना यी जीव के पूर्व जन्मर्जित पुण्य व ईश्वरी कृपा का प्रत्यक्ष फल है। जिस प्राणी का तन-मन-धन परोपकार एवं सत्संग में लगता है वही प्राणी जीवन मुक्त है। इसलिये आप धन्य है, जो यहां एकत्रित हुए है और परमार्थिक प्रश्न कर रहे है। अब मैं आपको आगे का कुछ और प्रसंग सुनाता हूं। आप लोग श्रद्धा भक्ति से ध्यान पूर्वक सुने।
एक बार युधिष्ठर महाराज ने भगवान श्री कृष्ण से प्रश्न किया था जिसे सुनकर भगवान ने जो कुछ कहा वह मैं आपको सुनाता हूं। भगवान श्री कृष्ण बोले हे युधिष्ठर एक बार मुनि प्रवर उतथ्य जी और अंगिरा जी में तप और विद्या में कौन श्रेष्ठ है? इस पर विवाद बढ़ गया जिसमें देवता भी रूचि लेने लगे बहुत मतमेद बढ़ जाने पर नारद जी का आगमन हुआ। आतिथ्य सत्कार प्राप्त करने के बाद उन्होनें सारा वृतान्त सुना और कहा कि इसका निर्णय ब्रह्मा जी ही कर सकेगें। आप लोग उनके पास ही जावें। ऐसा सुन दोनों महर्षि ब्रह्मा जी के पास ब्रह्म लोक में गये। ब्रह्मा जी को नमन कर सारा वृतान्त सुनाया, जिसे सुनकर ब्रह्माजी अति प्रसन्न हुए और बोले हे महर्षि, आप जाकर समस्त देवताओं लोकपालों यक्षों, किन्नरों आदि को बुला लावें। उनके आने पर ही इसका निर्णय देगें। ऐसा सुनकर दोनों जाकर सभी देवताओं, लोकपालों, यक्षों, किन्नरों, दैत्यों, गन्धर्वो राक्षस आदि सभी को बुला लावें, किन्तु सूर्य भगवान को बुलाने कोई नहीं गया। तब ब्रह्माजी ने कहा कि मुनि उतथ्य जी आप जाकर सूर्यनारायण जी को बुला लावें उनके बिना जगत मे इस निर्णय का प्रत्यक्ष साक्षी कौन होगा? वे सभी के साक्षी है उनका तप प्रभाव प्रत्यक्षदर्शी है। ऐसा सुन उतथ्य जी भगवान सूर्य के पास गये और उन्हे सारा वृतान्त सुना कर ब्रह्मलोक चलने की प्रार्थना की। सूर्य भगवान ने कहा कि हे महर्षि! हमारे यहां से जाने पर सारे लोगों में अंधकार छा जायेगा, जगत की गति अवरुद्ध हो जायेगी इसलिये हमारा चलना असंभव है। ऐसा सुनकर उतथ्य जी ने कहा कि हे प्रमु! हमारा निर्णय आपके बिना नहीं हो सकेगा, तब सूर्य भगवान ने कहा कि जब तक मैं जाकर वापिस आऊंगा तब तक मेरा दायित्व आप संभाल लें। सूर्य नारायण के मुख से ऐसा सुनकर उतथ्य जी सोचने लगे कि इनका दायित्व तो मैं नहीं संभाल सकूँगा ऐसा सोचकर वह ब्रह्म लोक में वापस आ गये और सारा वृतान्त ब्रह्माजी को सुनाया, तब ब्रह्माजी ने महर्षि अंगिरा जी से कहा कि आप जाकर सूर्यनारायण को बुला लाओं। तब महर्षि अंगिरा जी सूर्य नारायण के पास गये और उनसे उनसे ब्रह्मलोक पधारने की प्रार्थना की, जिसे सुनकर सूर्य देव ने वही बात दोहरायी जो उतथ्यजी से कही थी। जिसे सुनकर श्री अंगिराजी बोले - हे देव! आप निश्चिन्त होकर पधारें, मैं आपके इस कार्य को संभाल लूंगा और पूर्णरूप से निर्वाह भी कर लूंगा। ऐसा सुनकर सारा कार्यभार अंगिरा जी पर छोड़ सूर्यदेव ने ब्रह्म लोक के लिए प्रस्थान किया।
इधर अंगिरा जी ने अपना प्रचण्ड तपतेज आलोकित कर दिया, उधर ब्रह्माजी ने सूर्य नारायण से पूछा कि हे देव! आपने मुझे किस कारण याद किया है? मुझे आज्ञा दें। तब ब्रह्मा जी ने सारा वृतान्त बतलाया और पूछा कि आप यह निर्णय करे कि अंगिरा जी और उतथ्य दोनों में से श्रेष्ठतपी कौन है? यह सुनकर सूर्यदेव ने कहा कि यह निर्णय तो हो चुका है। मेरे स्थान पर जो कार्य उतथ्य नहीं कर सकें, वह कार्य अंगिरा जी ने कर दिया है। मैं ये बात जानता हूं कि मेरे कार्यभार को संभालने की क्षमता सिवाय अंगिरा जी के और किसी में भी नहीं है। यह उनकी कठोर तपस्या का ही फल है। अतः श्रेष्ठता श्री अंगिरा जी की ही सिद्ध होती है। यह सुनकर ब्रह्मा जी ने कहा कि हे सूर्य देव आप अपने स्थान पर पधारें अन्यथा श्री अंगिरा जी के तप-तेज से सारा मूमण्डल तप्त हो जायेगा, तभी उपस्थित देवताओं ने देखा कि भूमण्डल को ताप से बचाने के लिए विन्ध्याचल पर्वत अपना आकार बढ़ाकर उस तेज की प्रचण्डता रोकने का असफल प्रयास कर रहा है। उतथ्य जी ने देखा कि पर्वत के वृक्ष जलने लगे है, तब तुरन्त ही सूर्यनारायण जी ने आकर श्री अंगिराजी की स्तुति की और उनसे कहा कि आप ब्रह्मलोक मे पधारें, वहां सभी आपकी प्रतीक्षा कर रहे है। यह सुनकर श्री अंगिराजी ने सारा कार्यभार ज्यों का त्यों श्री सूर्यदेव को संभालकर ब्रह्मलोक आ गये। वहां सभी देवताओं सहित स्वयं श्री उतथ्य जी ने उनका अभिनन्दन व पूजन किया तथा उनकी श्रेष्ठता स्वीकार की। तत्पश्चात ब्रह्माजी ने भी लोक कल्याण हेतु श्री अंगिराजी को नमन किया। श्री कृष्ण भगवान बोले- हे युधिष्ठर! इस प्रकार श्री अंगिरा जी महान तेजस्वी, विद्वान एव परोपकारी है। उनके स्मरण मात्र से जीवों का कल्याण हो जाता है।
चतुर्थ अध्याय
यह सुनकर ऋषिगण बोले -हे व्यास जी! कलि के जीवों के लिये अपने अत्यंत सरल उपाय कल्याणार्थ बतलाया। अब हमें यह बतलावें कि अंगिरा जी किन के पुत्र है और इनके क्या क्या महान कार्य है। कृप्या हमें सुनावें। ऐसा ऋषियों का आग्रह सुनकर श्री व्यास जी बोले हे ऋषि प्रवरों! यह जिस भूमि पर सतसंग हो रहा है। यह जांगल क्षेत्र ही अंगिरा जी की तपस्थली है। यहां तप करने से ही उनका नाम जांगिड ऋषि भी पड़ गया तथा उनकी संतति जगत में जांगिड नाम से जानी जाने लगी। इनका जन्म श्री ब्रह्मा जी के हृदय से हुआ था इसलिये इन्हें ब्रह्मा जी के मानस-पुत्र, ब्रह्मपुत्र कहा जाता है। वेदों का सार एवं मुख कहा जाने वाला 'अथर्ववेद के 48 सूक्त 203 मंत्र के श्री अंगिरा जी दृष्टा है। परमात्मा ने अग्नि, वायु, आदित्य और अंगिरा को ही सर्वप्रथम उत्पन्न किया तथा इन्हीं के द्वारा वेद का प्रकाश हुआ। ब्रह्मा जी को भी ज्ञान देने के कारण यह 'ब्रह्मर्षि' है। पृथ्वी पर अरणी मंथन द्वारा सर्व-प्रथम अंगिरा जी द्वारा ही 'अग्नि' का आविष्कार किया गया था, इसलिये इन्हें 'आग्नेय' भी कहा जाने लगा। श्रावण मास में सूर्यनारायण के रथ में विराजमान होने वाले अंगिरा जी चतुर्थ द्वापर के व्यास माने गये हैं। इस प्रकार हर कल्प-युग में ब्रह्मर्षि अंगिरा जी की परम्परा एवं प्रमुखता का वर्णन है। ज्योतिष, सौर एवं अन्य सभी शास्त्र, पुराणों आदि में श्री अंगिरा जी का वर्णन है। सहस्त्र मुखों द्वारा भगवान श्री शेष जी भी ब्रह्मर्षि अंगिरा जी के गुणों एव सृष्टि में उनके योगदान का वर्णन करने में असमर्थ है। इसलिये मैंने अपने प्रसिद्ध पुराण "श्री मद्भागवत पुराण' में इन्हें "भगवान' लिखा है। व्यास जी बोले हे ऋषियों! अब मैं इस व्रत की विधि बतलाता हूं।
इस अंगिरा पंचमी के व्रत को “भाद्रपद शुक्ला पंचमी के दिन ऋषि पंचमी को सभी स्त्रियों तथा कन्याओं को अवश्य करना चाहिए। स्नान आदि से निवृत होकर शुद्ध वस्त्रादि धारण करके बालों में सुगन्धित तेल लगाकर सौभाग्य भूषणों से अपने को सुसज्जित कर ऋषि अंगिरा जी का पूजन तया कथा श्रवण करें। सूर्यास्त से पहले महर्षि अंगिरा जी का पंचामृत पानकर बिना नमक के बना हुआ प्रसाद दिन मे एक ही बार ग्रहण करें। सपरिवार व्रत करने से यह व्रत और भी उत्तम फलदायी होगा। पुरूषों को चाहिये कि पूजन कथा के उपरान्त अथर्ववेद के 96/38 के ॐ अंगिराऽसि जांगिड से जांगिडस्कृत तक 10 मंत्रों से शुद्ध समा के चावलों की खीर से हवन करें। व्रत के दिन यदि कोई अतिथि घर आ जाये तो उसे यथा शक्ति भोजन सत्कार से देवता मानकर सम्मानित करना चाहिये, इसे व्रत की सफलता माने यह सभी कार्य पूर्ण श्रद्धा-भक्ति से सम्पन्न करें। ऐसा करने से स्वयं को भी देवत्व प्राप्त होता है। इस प्रकार देवत्व प्राप्त करके देवता का पूजन करना सर्वश्रेष्ठ पूजन है। "देवोभूत्वादेवान् यजेत्" यह व्रत पूर्वकाल में देवता भी करते थे। इस पंचमी व्रत का आप लोगों को वृतान्त सुनाता हूं।
लक्ष्मी का मद अहंकार जब किसी को प्राप्त हो जाता है तब उसका दुरूपयोग करने लगता है। इसी प्रकार जब पृथ्वी पर लक्ष्मी के प्राप्त होने पर चारों ओर पापाचार होने लगा तो भृगुकन्या लक्ष्मी दुःखी होकर क्षीर सागर में प्रवेश कर गई। सागर में लक्ष्मी के प्रवेश होने से सारा विश्व एव तीनों लोक श्रीविहीन हो गये। लक्ष्मी के बिना जीव सभी प्रकार से निश्तेज हो गये तथा नाना प्रकार के कष्टों ने प्राणियों को घेर लिया तब देवराज इन्द्र ने देवताओं के गुरू अंगिरा पुत्र श्री बृहस्पति जी से पूछा कि हे गुरूदेव! ऐसा कोई सरल उपाय बतलाये जिससे स्थिर लक्ष्मी प्राप्त हो सकती हो। लक्ष्मी के बिना सभी शुभ कार्य नष्ट प्रायः हो गये है। कृपा करके लक्ष्मी को पुनः प्राप्त करने का कोई उपाय बतलाईये। गुरू बृहस्पति जी बोले- हे देवेश! यदि स्थिर लक्ष्मी को पुनः प्राप्त करना चाहते है तो आप लोग अंगिरा पंचमी व्रत करें। जिसके करने से आपको अभीष्ट सिद्धी की शीघ्र ही प्राप्ति हो सकेगी। इस प्रकार गुरूदेव के वचन सुनकर इन्द्रदेव ने विधिवत रूप से इस व्रत को किया। इन्द्र को व्रत करते हुए देखकर विष्णु आदि देवताओं, दैत्यों, दानवों, राजाओं तथा ब्राह्मण आदि भी इस व्रत को करने लगे। भगवान विष्णु ने इस व्रत को सात्विक भावना व श्रद्धा से किया, जिसके फलस्वरूप लक्ष्मी ने स्वयं भगवान विष्णु का वरण कर लिया। इन्द्र ने राजस भाव से किया, फलस्वरूप इन्द्र को इन्द्रासन प्राप्त हुआ। इस प्रकार दैत्य-दानवों ने इस व्रत को तामस भाव से करने पर उसका दुरूपयोग ही किया। अनाचार विलासिता आदि में ही उसका प्रयोग किया इससे वह निश्तेज ही रहे। हे ऋषियों! इस व्रत के प्रभाव से श्री विहिन जगत फिर से श्री सम्पन्न हो गया। इस व्रत के करने से 21 कुलों के साथ मनुष्य लक्ष्मी लोक में ही वास करते है। जो सौभाग्यवती स्त्रियां इस व्रत को करती है, उन्हें अखण्ड सौभाग्यवती बने रहने का फल प्राप्त होता है। धन, ऐश्वर्य पुत्र पौत्रादि से सम्पन्न और सुखी रहती है। वह पति के लिए अति प्रिय बन जाती है। हे ऋषियों! यह व्रत दुःख दुर्भाग्य, रोग, शोक, दरिद्रय का नाश करने वाला तथा यश-कीर्ति, प्रतिष्ठा को बढ़ाने वाला है।
पंचम अध्याय
इस भांति श्री व्यासजी के मुख से सुनकर ऋषियों ने कहा कि हे व्यास जी महाराज! आपने जो कहा सो ठीक है, परन्तु कलियुग मे प्रायः जप-तप व्रतादि करते रहने पर भी न तो मन को शान्ति ही मिलती है और न अभीष्ट सिद्धि की प्राप्ति होती है। इसका क्या कारण हैं? ऐसा क्यो है? इस प्रकार सुनकर दयालु श्री व्यास जी बोले कि हे ऋषियों! यह आपका कथन सत्य ही है।
और इसे इसे अवश्य ही समझना चाहिए। बिना इसकी जानकारी के बिना प्रायः सभी कार्य निष्फल ही रहते है। इसके विषय में आपको बतला रहा हूं वह अति महत्वपूर्ण है। पूर्वकाल में उज्जयिनी में एक महासेन नामक राजा रहता था। उसके राज्य में देव शर्मा नामक एक ब्राह्मण रहता था। उस ब्राह्मण के गुणकार नाम का एक पुत्र था यह पुत्र जन्म से ही उदण्ड स्वभाव का था और बड़ा होने पर गुणकार जुआरी, मदिरा पान आदि के साथ व्यभिचारी तथा नाना प्रकार के अत्याचारों को करने लगा और उसके अपने पिता की सारी सम्पत्ति नष्ट कर दी। जब लक्ष्मी का दुरूपयोग होता है तो एक दिन लक्ष्मी अप्रसन्न होकर वहां से चली जाती है।
इस प्रकार लक्ष्मी अप्रसन्न होकर चली गई, तत्पश्चात, वह सभी अभावों से ग्रसित होकर जहां-तहां भटकने लगा। एक दिन गुणकार नगर से दूर जंगल में निवास करने वाले एक सिद्ध-योगी के आश्रम पर पहुंचा, वह तपस्वी को देखकर बोला, मुझे भोग तृप्ति हेतु एक सुन्दरी चाहिए। आप सिद्ध पुरूष है तब योगी ने लज्जाहीन दुष्ट का व्यवहार देखकर इसे योगबल से एक यक्षिणी बुलाकर दे दी। उस यक्षिणी ने उसका चंचल मन मोहित कर दिया। जैसे ही वह यक्षिणी को आलिंगन में लेने को आगे बढ़ा, वह, अन्तर्ध्यान होकर कैलाश पर्वत के शिखर पर चली गई, तब उसके वियोग से गुणकार विहल होकर योगी के पास जाकर उसे पुनः प्राप्त कराने की प्रार्थना करने लगा, जिसे सुनकर योगी ने कहा कि मुझमें केवल यक्षिणी को एक ही बार बुलाने की शक्ति थी, सो मैं उसे एक बार बुला चुका। अब यदि तुझे उसे प्राप्त करने की इच्छा है तो तुझे एक मंत्र बतलाता हूं जिसे तू अर्द्धरात्री में यदि जल में खड़े होकर 40 दिन तक जपेगा, तो तुम भी उसे बुलाने की शक्ति प्राप्त कर सकते हो।
इसके आग्रह पर योगी ने यह मंत्र गुणकार को बतला दिया, जिसे गुणकार ने 40 दिन पर्यन्त मंत्र जपा, किन्तु फिर भी यक्षिणी नहीं आई, तब वह पुनः सिद्ध योगी के पास जाकर अपना असफलता का कारण पूछने लगा तब सिद्ध योगी ने बतलाया कि हे वत्स! यद्यपि दो बार तूने कष्टपूर्वक मंत्र का जप किया परन्तु दोनों बार की साधना में मनोयोग की कमी रहने से सिद्धि प्राप्त न हो सकी। जल तथा पंचाग्नि के सेवन में शारीरिक योग तो रहा और वाणी से भी जप किया किन्तु मन तुम्हारा जप में न लग कर यक्षिणी के रूप-लावण्य की भोगेच्छा में फंसा रहा, इसी कारण तुम्हे यथोचित्त सफलता नहीं मिली। हे वत्स! किसी कार्य की सिद्धि हेतु तन मन वाणी के योग की आवश्यकता होती है। जिसमें मी मन का योग प्रथम आवश्यक हैं यह निश्चय है कि तीनों की तन्मयता से सम्पादित कार्य ही शीघ्र और अपेक्षित फल देते है। इस प्रकार योगी बात सुनकर गुणकार ने पुनः मनोयोग द्वारा मंत्र जप किया, लेकिन इसी बीच उसका शरीरान्त हो गया और वह मर कर यक्ष की योनि में गया और सदा के लिये उसने उस यक्षिणी को प्राप्त कर लिया। हे ऋषियों सिद्धि और सफलता के लिये इस रहस्य को मैंने आपकों बतलाया है कलि का जीव मनोयोग से प्रायः कार्य नहीं करता केवल फल के आनन्द की कल्पना में मन में लीन रहता है। इसलिये उसे सफलता नहीं मिलती हैं। अब आप तीनों ही मन, वाणी, शरीर द्वारा ब्रह्मर्षि अंगिरा ऋषि पंचमी का व्रत विधि विधान से करिये। निश्चय ही आपको सफलता मिलेगी, इस प्रकार ऋषियों को बतलाकर श्री व्यास जी महाराज उनसे विदा लेकर अपने आश्रम के लिये चले गये तब सभी ऋषियों, श्रोताओं ने उन्हें प्रणाम कर विदा किया।
इन श्री अंगिरा ऋषि की कथा के लिये जो प्राणी श्रद्धापूर्वक व्रत आदि करके श्रवण करेगे या स्वयं पढ़ेगें तथा इस कथा के ग्रंथ को इस पंचमी के दिन श्रद्धालु भक्तों को दान करेगें वह सभी मनोवांछित फल प्राप्त कर अखण्ड सौभाग्य आदि ऐश्वर्य का भोग इस लोक में कर अन्त में ऋषि लोक को प्राप्त सहज ही में कर लेगें।
इति शुभम्।
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